भाजपा के दिग्गज नेता रहे जसवंत सिंह ने अनेक जगहों से लोकसभा के चुनाव जीते थे। राजस्थान के चित्तौड़गढ़, जोधपुर और सुदूर पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग से। लेकिन उनकी इच्छा थी कि वे एक बार अपने गृह क्षेत्र बाड़मेर-जैसलमेर से चुनाव लड़ें और वह मौका था 2014 के लोकसभा चुनाव था। इस लोकसभा क्षेत्र से जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह चुनाव जीत भी चुके थे और हार भी चुके थे।

जसवंत सिंह ने तैयारी शुरू भी कर दी थी लेकिन उनको टिकट नहीं दिया गया।
आम आदमी को यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर इतने बड़े नेता को भी टिकट के लिए इनकार किया जा सकता है? जसवंत सिंह का कद आप इसी से समझ लीजिए कि देश की सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी में प्रधानमंत्री के अलावा रक्षा मंत्री, वित्त मंत्री, विदेश मंत्री और गृह मंत्री ही होते हैं। जसवंत सिंह इनमें से तीन पदों पर रह चुके थे। एक समय में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के बाद तीसरे नंबर के नेता जसवंत सिंह होते थे। बीजेपी के पोस्टरों में पहले अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरलीमनोहर जोशी की तस्वीरें होती थीं, मुरलीमनोहर जोशी की जगह अब जसवंत ले चुके थे।
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अटलबिहारी वाजपेयी परिदृश्य से गायब हो चुके थे और 2014 के चुनाव में आडवाणी और जोशी, दोनों को टिकट तो दिए गए लेकिन चुनाव जोशी को वाराणसी की बजाय कानपुर भेज दिया गया। वे भारी मन से वहां गए और जीत भी गए लेकिन जसवंत सिंह को टिकट नहीं मिला। उनका दिल टूट गया था लेकिन हौसला चट्टान जैसा था। अपने पसंदीदा क्षेत्र से बतौर निर्दलीय उम्मीदवार ताल ठोक दी। प्रचंड मोदी लहर में भी निर्दलीय जसवंत चार लाख से भी ज्यादा वोट हासिल करने के बावजूद चुनाव हार गए।
अब वे टूट चुके थे और कुछ ही समय बाद दिल्ली स्थित अपने निवास पर गिरने से घायल हुए तो उसके बाद कभी उठ नहीं पाए। उनके पुत्र मानवेंद्र तब शिव (बाड़मेर) से भाजपा विधायक थे। उन्होंने वह कार्यकाल जैसे तैसे निकाला और 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले एक बड़ी स्वाभिमान रैली करके वे कांग्रेस में शामिल हो गए।
बीजेपी ने 2014 में बाड़मेर-जैसलमेर से कांग्रेस के सांसद-विधायक रहे कर्नल सोनाराम को बीजेपी में लाकर जसवंत सिंह के सामने उतार दिया और मोदी लहर में वे जीत भी गए। बीजेपी को यह गुमान रहा कि सब उसके साथ हैं लेकिन जैसलमेर-बाड़मेर का राजपूत वोट बैंक उससे काफी हद तक छिटक चुका था। इसकी झलक 2018 के विधानसभा चुनाव में दिखी। ‘वसुंधरा तेरी खैर नहीं…’ के नारे पर सवार इस चुनाव में दोनों जिलों में सिर्फ सिवाना सीट बगावत के चलते बीजेपी के खाते में आई और बाकी सभी आठ सीटें कांग्रेस की झोली में चली गई।
कर्नल सोनाराम को भी बीजेपी ने बाड़मेर से विधानसभा चुनाव लड़वाया लेकिन वे यह चुनाव 30000 वोटों से भी ज्यादा अंतर से हारे। मानवेंद्र सिंह को हालांकि कांग्रेस ने झालरापाटन सीट पर वसुंधरा राजे के सामने उतारा लेकिन वे वहां कोई कमाल नहीं कर पाए। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बाड़मेर-जैसलमेर सीट से मानवेंद्र को उतारा लेकिन इस बार मोदी लहर 2014 से भी ज्यादा प्रचंड थी और मानवेंद्र यह चुनाव बीजेपी के कैलाश चौधरी से तीन लाख से ज्यादा वोटों से हार गए।

अब बीजेपी को लगा होगा कि कि वह वह इस क्षेत्र में मजबूत है। आज आप जैसलमेर-बाड़मेर जिलों में जाएंगे तो कहीं से लगेगा नहीं कि बीजेपी यहां मजबूत है। लोगों के मन में आज भी जसवंत सिंह के लिए सम्मान और सहानुभूति दोनों हैं और कहीं न कहीं एक टीस है कि उनके एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के नेता को बेवजह ठिकाने लगा दिया गया। इस बीच, इस क्षेत्र में बीजेपी का संगठन धराशायी हालत में पहुंच गया। आने वाले विधानसभा चुनाव में भी जसवंत फैक्टर की झलक दिखाई दे सकती है। मानवेंद्र सिंह फिर मैदान में उतरने को आतुर हैं। संभलकर कदम बढ़ाने की जरूरत है।
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