मणिपुर में एम्बुलेंस रोककर भीड़ ने आग लगा दी, मां-बेटे जलकर मर गए, पुलिस देखती रह गई
गृहमंत्री अमित शाह मणिपुर में तीन दिनों के लिए थे. जब एक प्रेसवार्ता आयोजित करके वो मणिपुर से बाहर गए, तो लोगों के मन में एक आशा जरूर थी कि अब तो मणिपुर शांत हो जाएगा.
लेकिन मणिपुर के लिए ये आशा बहुत दूर की कौड़ी है. हम ऐसा क्यों कह रहे हैं? घटनाक्रम को देखते हुए. और घटनाक्रम के केंद्र में है 45 साल की मीना हांगसिंग और उनके 7 साल के बेटे टॉनसिंग हांगसिंग की मौत. मणिपुर में बनी हिंसा की फॉल्ट लाइंस को देखकर बात करें तो दो गुट एक दूसरे की लाशें उतार रहे हैं. मैतेई और कुकी.
लेकिन मीना की मौत क्यों हुई? मीना एक मैतेई थीं, जिनकी शादी कुकी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले व्यक्ति से हुई थी. उनके बेटे की तबीयत खराब थी. वो अपने बेटे को एम्बुलेंस से लेकर जा रही थीं अस्पताल. लगभग 2 हजार लोगों ने एम्बुलेंस को घेर लिया. मां-बेटेमय एम्बुलेंस में आग लगा दी गई. सामने पुलिस मौजूद थी. कुछ नहीं कर सकी. दोनों की मौत हो गई. खबरों में मारने वालों की पहचान खोजी गई और लिखा गया एक पुलिस थाने का नाम – लामसांग पुलिस स्टेशन. एक तमाशबीन के अलावा पुलिस की पहचान एक थाने तक ही महदूद थी.
दो लोग जलकर कंडे में तब्दील हो चुके थे.
लेकिन लोगों की आशाओं के धूमिल होने का बस ये ही एक सूचकांक नहीं था. बस जमीन वास्ते मैतेई समुदाय की जनजातीय होने की अभिलाषाओं और इसके विरोध में उपजे कुकी विद्रोह में और भी लोग मारे गए. जैसे एक सीमा सुरक्षा बल (BSF) का जवान. BSF हवलदार का नाम था रंजीत यादव. वो सेरो इलाके में पोस्टेड था. सेरो यानी मणिपुर के काकचिंग जिले में लगे सुगनू के पड़ोस में बसा इलाका. वो इलाका, जहां सबसे अधिक खून बहाया गया है. गोलियां चली हैं, घर जले हैं. रंजीत यादव अपनी ड्यूटी में मारा गया. साथ ही असम राइफल्स के कुछ और जवान गोलियों से घायल हुए.
रंजीत की मौत का इलाका वो इलाका था, जहां लोग तपाती हुई मई की गर्मी में जैकेट और शॉल डाले रहते हैं. इन कपड़ों के अंदर हथियार होते हैं. तमंचे-तलवार-गंड़ासे से लेकर राइफल, पिस्टल और कुछ ऑटोमैटिक हथियार. मीडिया के दृश्य से हटने के बाद ये हथियार अपने खोलों से बाहर निकलते हैं. ये हथियार दुनिया को देखते हैं और अपने विरोधी समुदाय को देखते हैं. इन हथियारों का होना मणिपुर के जलते रहने को सुनिश्चित करता है.
राजनीतिक क्राइसिस का भी अपना स्थान है. नगा जनजाति के 10 विधायक दिल्ली आ जाते हैं. अमित शाह से मुलाकात करने. उन्हें कुकी और मैतेई के बीच चल रहे समझौते के प्रयासों से बाहर न रख दिया जाए, इसकी फिक्र है. एक अलग प्रशासन की डिमांड करने वाले 10 कुकी विधायकों को मणिपुर विधानसभा की विशेषाधिकारों और नीतियों से जुड़ी कमिटी कारण बताओ नोटिस जारी कर देती है. मणिपुर जलता रहता है
मणिपुर में मैतेई और नागा – कुकी का 10 साल पुराना विवाद क्या है?
मणिपुर में तीन मुख्य समुदाय, मैतेई, कुकी और नागा हैं। राज्य में मैतेई समुदाय की आबादी सबसे ज्यादा है, जो इंफाल घाटी में बसे हैं। वहीं, कुकी और नागा आदिवासी समुदाय हैं और ये लोग पहाड़ी इलाकों में रहते है। पहाड़ी जनजातियां मुखयरूप से ईसाई धर्म को मानने वाली हैं। राज्य की 53 फीसद आबादी मैतेई है और आर्थिक रूप से काफी संपन्न है। अब मैतेई समुदाय भी एसटी दर्जे की मांग कर रहा है, जिसका कुकी और नागा कड़ा विरोध कर रहे हैं।
क्या कहता है मैतेई समुदाय?
आज तक, नागा और कुकी-ज़ोमी जनजातियों की 34 उप-जनजातियां सरकार की अनुसूचित जनजातियों की सूची में हैं, लेकिन मैइती नहीं हैं. हालांकि, अनुसूचित जनजाति मांग समिति, मणिपुर के माध्यम से यह समुदाय दशकों से एसटी दर्जे की मांग कर रहा है.
उनका तर्क है कि 1949 में भारत में विलय से पहले उन्हें मणिपुर की जनजातियों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, लेकिन जब संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 का मसौदा तैयार किया गया था, तब उन्होंने यह टैग खो दिया था. यह दावा करते हुए कि उन्हें एसटी सूची से बाहर कर दिया गया था, वे अपनी मांगों पर अड़े रहे.
हालांकि, उनकी मांग का राज्य के मौजूदा 36 एसटी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले आदिवासी छात्र संघों ने कड़ा विरोध किया है, जिन्होंने तर्क दिया है कि मैइती एसटी का दर्जा देने से आरक्षण के माध्यम से आदिवासी समुदायों की रक्षा करने का मकसद नाकाम हो जाएगा.
साल 2012 से आदिवासी के दर्जे की मांग को आगे बढ़ाने वाले मणिपुर की अनुसूचित जनजाति मांग समिति के महासचिव के भोगेंद्रजीत सिंह ने एक इंटरव्यू में ये कहा था, “भारत का कोई भी नागरिक, जिसमें हमारे अपने पहाड़ी लोग भी शामिल हैं, इंफाल घाटी में आकर बस सकते हैं.”
मैइती समुदाय के संगठनों का कहना है
कि एसटी दर्जे की मांग उनके अस्तित्व और बाहरी लोगों की आमद से सुरक्षा के लिए जायज है, खासकर म्यांमार से. उनका कहना है कि एसटी टैग से उन्हें आदिवासी लोगों की तरह पहाड़ियों में जमीन हासिल करने में मदद मिलेगी, जिनके “अनारक्षित” इंफाल घाटी में जमीन खरीदने पर कोई प्रतिबंध नहीं है. मैइती समुदाय की नाराजगी है कि उनके रहने की जगह इंफाल घाटी में आदिवासी जमीन खरीद रहे हैं, लेकिन उनके पहाड़ों में ऐसा
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